अतिरिक्त >> हुस्न का बाजार हुस्न का बाजारसोनिया फलेरो
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हुस्न का बाजार...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लीला बंबई में एक बार डांसर है। वो जवान है, सुंदर है, पक्के इरादों वाली है जिसे सुख की तलाश है। लेकिन साथ ही वो चिंता से घिरी, स्वयं को नुक़सान पहुंचाने वाली और चिड़चिड़ी भी है। जब डांस बार्स पर पाबंदी लगा दी जाती है, तो लीला और उसके मित्रों को लगता है मानो उसकी दुनिया हाथ से निकल रही है। हुस्न का बाज़ार इन सबकी ज़िंदगियों की गहराई में उतरती है और उनकी बेमिसाल कहानी पेश करती है। इसे हाल के दिनों की सबसे बेहतरीन रचनाओं में से एक माना गया है।
हुस्न का बाज़ार
सोनिया फलेरो एक पुरस्कृत पत्रकार हैं। उन्होंने द गर्ल नाम का एक उपन्यास लिखा है। ब्यूटीफुल थिंग उनकी पहली कथेतर किताब है जो बंबई के डांस बारों के पांच साल के अध्ययन पर आधारित है। इस किताब का दुनिया भर की अनेक भाषाओं में प्रकाशन हुआ है। वे सान फ्रांसिस्को में रहती हैं।
नीना वाघ का बचपन इलाहाबाद में गुज़रा। नीना ने आपने काम की शुरुआत ‘बोधिकथा’ के हिंदी रूपांतर से की। इस संगीत नाट्य का दिल्ली के कई स्कूलों में मंचन हुआ है। आप कथा प्रकाशन के लिए बच्चों की कहानियों का अनुवाद भी करती हैं।
नीना वाघ का बचपन इलाहाबाद में गुज़रा। नीना ने आपने काम की शुरुआत ‘बोधिकथा’ के हिंदी रूपांतर से की। इस संगीत नाट्य का दिल्ली के कई स्कूलों में मंचन हुआ है। आप कथा प्रकाशन के लिए बच्चों की कहानियों का अनुवाद भी करती हैं।
‘आने दो, कोई भी आदमी, किसी भी वक़्त’
लीला ने मुझे बताया कि वो बेहद सुदंर है। पास में सोते हुए ग्राहक की निक्कर-बनियान पहने खुद को आदम कद शीशे में निहारते हुए जब उसने ये कहा तो मेरे पास इस बात को न मानने की कोई वजह नहीं थी।
वो कोई खास लम्बी नहीं थी, इस बात को उसने खुद माना और उसके सीने के उभार भी नकली थे, उसकी ब्रा, ‘इम्पोर्टड-पैडेड’ थी। उसके कंधों तक लहराते बाल सुनहरे रंग में रंगे थे और उसकी आँखें भी उसके मेरठ शहर की बाकी लड़कियों की तरह नहीं थीं। वो तो मखमली बैंगनी रंग की थीं वो रंग जो शायद आप बारिश के आसार वाले दिनों में आसमान में देखें। अगर ग्राहक इशारा करके पूछता ‘असली या नकली ? तो लीला ऐसे जताती मानो उसे मालूम ही नहीं की बात उसकी आँखों के रंग के लिए हो रही है और वो हंस देती। बेचारे ग्राहक को घबराहट और उत्तेजना में ऐसा महसूस होता कि उसने चोरी से वहाँ देख लिया हैं जहाँ उसे नहीं देखना चाहिए या...उसके ब्लाउज़ के हुकों के बीच से झांकती मुलायम चॉकलेटी गोलाइयों को।
लेकिन लीला जैसे पैदा हुई थी वैसे ही थी अंदर से, डोर अपनी इस स्वाभाविक ‘‘बूटी’’ के लिए उसे बड़ा अभिमान था जो उसे ‘सीधे ईश्वर से’ मिली थी। उसने कहा कि बाकी लड़कियाँ काली थीं। ‘बंगालियों की तरह’ और जब वो अपना मुँह धोकर ड्रीमफ्लावर पाउडर उतारती जिसे लगाए बिना वो घर से बाहर कदम नहीं रखती तो उन्हीं भिखारी बंदरों जितनी ही खूबसूरत दिखतीं जो गली के पास वाले हरे कृष्ण मंदिर के बाहर भक्तों से केले छीनते हुए दिखते थे।
लेकिन लीला ऐसी नहीं थी। अगर वे सारे कपड़े उतार कर सिर्फ ब्रेजरी और अंडरवियर में खड़ी हो जाए तब भी वो सुंदर दिखेगी। ठीक चांदनी में घुले आगरे के ताजमहल जैसी।
हालांकि मैं इन की गवाही तो नहीं दे सकती लेकिन फिर भी इतना ज़रूर कहूँगी, लीला का चेहरा दिल के आकार का था ठीक वैसे ही जैसे फैशन पत्रिकाओं के चेहरों के विभिन्न आकारों पर सही मेक-अप को दर्शाने के लिए दिखाया जाता है। उसके हाथों और पैरों की बनावट सुडौल थी और वो मुलायम थे ठीक उसकी रंगत की तरह गेहूँयी। उसकी खाली ऊँगलियों के नाखून सख्त और चौकोर थे जो उस वक्त काम आते जब नाचते वक्त लोगों की भीड़ उसे परेशान करने लगती। अपनी सुंदर छोटी सी नाक की महिमा को लीला सगाई की अँगूठी की तरह ऐसे दिखाती मानों वो सगाई की अंगूठी हो। डान्स बार में कुछ खास शामों को जब उसे अपनी ब्रेजरी में सौ-सौ के नोटो की पैडिंग बढ़ानी होती तो वो सिर्फ धूमिल रूप रेखा का इस्तेमाल करती। लेकिन खूबसूरती ही सबकुछ नहीं थी। आप क्या पहनते है ये पचास और पांच सौ के बीच का फर्क तय करता था। तुम ग्राहक से क्या कहते हो जब वो एक और शाम सिर्फ तुम्हें देखते हुए नहीं बिताना चाहता, बड़ा निर्णायक होता है और ये भी की तुम ये उससे कैसे कहती हो। क्यो तुम्हें मशहूर तवायफ उमराऊ की बातें याद हैं। हम से ज्यादा किसी को नहीं मालूम की मोहब्बत कैसे की जाती है। आहें भरना ज़रा सी बात पर फूट कर रो पड़ना, कई दिनों तक भूखे रहना; ज़हर खाने की धमकी देना...
उमराऊ बेहद खूबसूरत थी, लेकिन उसके नखरों और दिखावों ने ही उसे मशहूर बनाया। लीला अपने पेशे को इस सबसे ज़रूरी पहलू को बखूबी समझती थी और इसलिए तो एकदम तेज तर्रार रहती थी ‘दो धारी तलवार’ की तरह। ‘मुझे चैलेंज दो, वो कहती, कोई भी आदमी, किसी भी वक्त। ‘हाई-फाई’ आदमी बिल्कुल आपका टाइप। मैं उसे यूँ काट दूँगी जैसे एक मच्छी वाला पॉमफ्रेट को काटता है। ‘चैंलेज दो’ वो कहती और उन शामों को जब वो शराब पीकर बातें करती और लड़खड़ाती उसके बालो की काली जड़े उसकी आँखों के असली रंग की तरह बीस वॉट के बल्ब की रोशनी में किसी बेईमान की तरह अपना असली रंग दिखाती जब उसकी पोल खोल रही होतीं, तो उसकी आँखों में एक उम्मीद रौशन होती।
लीला मुसीबत को बुलाती क्योंकि वो तो मुफ्त थी।
‘‘चैंलेज’’ मेरी ब्रेजरी के पट्टे को चटकाते हुए।
‘‘चैंलेज’’ अपनी हर वक्त जलती गोल्ड फ्लेक से मेरी उंगलिया जलाने का नाटक करती जब तक की मैं चीख कर न दूँ। ‘‘अरे मैं मान गई लीला, तुम जीती। मैं समझौता नहीं कर रही थी। लीला थी ही जीतने वालों में से ऐसी लड़की जिसे आप चर्चगेट स्टेशन में शुक्रवार की सुबह लॉटरी की टिकट खरीदते वक्त अपने साथ रखना चाहेंगे। वो अपने प्रेमी पुरूषोत्तम शेट्टी से जीत गयी थी। वो तीखे नैन-नक्श, छोटी टांगों और दो बच्चों वाला शादी-शुदा आदमी उसका ‘पति’ था। वो किसी भी मापदंड से, डॉन्स बार के मापदंड से भी वो उसका सीक्रेट था। लेकिन फिर भी जो लीला को उससे मिलता था उसकी कीमत, उसे पाने के लिए जो उसने खोया, उससे कहीं ज़्यादा थी, लीला ने ये ज़ोर देकर कहा मानो एक बच्चा अपनी माँ को ज़ोर देकर कह रहा हो कि वो बारिश में खेल सकता है बिना सर्दी पकड़े।
वो अपनी माँ अप्सरा से जीत गई हालांकि उसके तरीके ठीक नहीं थे। ‘अप्सरा’ यानी द्विव्य सुंदरी, लेकिन लीला की अप्सरा का वज़न अस्सी किलो से ऊपर था और उसका चेहरा तरकारी काटने वाले पटरे की तरह। उसके पीले दांत मुँह से इतने बाहर थे मानो वो किसी और के हों।
जब वो बोलती थी, बेटी ने अपनी माँ के बारे में बताते हुए कहा, तो ऐसा लगता था कि किसी ने कैसेट रिकार्डर पर फास्ट फारवर्ड का बटन दबा दिया हो। जब वो कमरे में घुसती तो ऐसा लगता मानो अंधेरा हो गया हो।
‘तुम कितनी मोटी हो,’ लीला चीख कर कहती बिना इस बात की परवाह करे की उसका ये मज़ाक, अगर वो मज़ाक है तो मजे़दार था कि नहीं और न ही कि उसकी माँ को अच्छा लगा की नहीं। और लीला अपने बाप मनोहर से भी जीत गई।
लेकिन ये उसके काफी बाद की बात है जब से उसके बाप ने उसे उसके स्कूल के बाहर पुलिस को किराये पर देना शुरू किया था। जब पुलिस वालों ने उसके कौमर्य को उससे छीना उसे कोंसते हुए क्योंकि उसने अपनी सलवार के नाड़े में ऐसी गांठ लगा रखी थी मानो वो सर्दियों के लिए बचाकर रखी आटे की बोरी हो। तो उस वक्त उसे सिर्फ थाने के अहाते में लगे पीपल के पेड़ की पत्तियाँ ही दिखायी दीं थी। उसे ऐसा लगा था मानो वो आपस में जुड़ कर बाते बना रही है और उसकी शर्मिंदगी को लेकर हैरान हो रहीं थी।
वो कोई खास लम्बी नहीं थी, इस बात को उसने खुद माना और उसके सीने के उभार भी नकली थे, उसकी ब्रा, ‘इम्पोर्टड-पैडेड’ थी। उसके कंधों तक लहराते बाल सुनहरे रंग में रंगे थे और उसकी आँखें भी उसके मेरठ शहर की बाकी लड़कियों की तरह नहीं थीं। वो तो मखमली बैंगनी रंग की थीं वो रंग जो शायद आप बारिश के आसार वाले दिनों में आसमान में देखें। अगर ग्राहक इशारा करके पूछता ‘असली या नकली ? तो लीला ऐसे जताती मानो उसे मालूम ही नहीं की बात उसकी आँखों के रंग के लिए हो रही है और वो हंस देती। बेचारे ग्राहक को घबराहट और उत्तेजना में ऐसा महसूस होता कि उसने चोरी से वहाँ देख लिया हैं जहाँ उसे नहीं देखना चाहिए या...उसके ब्लाउज़ के हुकों के बीच से झांकती मुलायम चॉकलेटी गोलाइयों को।
लेकिन लीला जैसे पैदा हुई थी वैसे ही थी अंदर से, डोर अपनी इस स्वाभाविक ‘‘बूटी’’ के लिए उसे बड़ा अभिमान था जो उसे ‘सीधे ईश्वर से’ मिली थी। उसने कहा कि बाकी लड़कियाँ काली थीं। ‘बंगालियों की तरह’ और जब वो अपना मुँह धोकर ड्रीमफ्लावर पाउडर उतारती जिसे लगाए बिना वो घर से बाहर कदम नहीं रखती तो उन्हीं भिखारी बंदरों जितनी ही खूबसूरत दिखतीं जो गली के पास वाले हरे कृष्ण मंदिर के बाहर भक्तों से केले छीनते हुए दिखते थे।
लेकिन लीला ऐसी नहीं थी। अगर वे सारे कपड़े उतार कर सिर्फ ब्रेजरी और अंडरवियर में खड़ी हो जाए तब भी वो सुंदर दिखेगी। ठीक चांदनी में घुले आगरे के ताजमहल जैसी।
हालांकि मैं इन की गवाही तो नहीं दे सकती लेकिन फिर भी इतना ज़रूर कहूँगी, लीला का चेहरा दिल के आकार का था ठीक वैसे ही जैसे फैशन पत्रिकाओं के चेहरों के विभिन्न आकारों पर सही मेक-अप को दर्शाने के लिए दिखाया जाता है। उसके हाथों और पैरों की बनावट सुडौल थी और वो मुलायम थे ठीक उसकी रंगत की तरह गेहूँयी। उसकी खाली ऊँगलियों के नाखून सख्त और चौकोर थे जो उस वक्त काम आते जब नाचते वक्त लोगों की भीड़ उसे परेशान करने लगती। अपनी सुंदर छोटी सी नाक की महिमा को लीला सगाई की अँगूठी की तरह ऐसे दिखाती मानों वो सगाई की अंगूठी हो। डान्स बार में कुछ खास शामों को जब उसे अपनी ब्रेजरी में सौ-सौ के नोटो की पैडिंग बढ़ानी होती तो वो सिर्फ धूमिल रूप रेखा का इस्तेमाल करती। लेकिन खूबसूरती ही सबकुछ नहीं थी। आप क्या पहनते है ये पचास और पांच सौ के बीच का फर्क तय करता था। तुम ग्राहक से क्या कहते हो जब वो एक और शाम सिर्फ तुम्हें देखते हुए नहीं बिताना चाहता, बड़ा निर्णायक होता है और ये भी की तुम ये उससे कैसे कहती हो। क्यो तुम्हें मशहूर तवायफ उमराऊ की बातें याद हैं। हम से ज्यादा किसी को नहीं मालूम की मोहब्बत कैसे की जाती है। आहें भरना ज़रा सी बात पर फूट कर रो पड़ना, कई दिनों तक भूखे रहना; ज़हर खाने की धमकी देना...
उमराऊ बेहद खूबसूरत थी, लेकिन उसके नखरों और दिखावों ने ही उसे मशहूर बनाया। लीला अपने पेशे को इस सबसे ज़रूरी पहलू को बखूबी समझती थी और इसलिए तो एकदम तेज तर्रार रहती थी ‘दो धारी तलवार’ की तरह। ‘मुझे चैलेंज दो, वो कहती, कोई भी आदमी, किसी भी वक्त। ‘हाई-फाई’ आदमी बिल्कुल आपका टाइप। मैं उसे यूँ काट दूँगी जैसे एक मच्छी वाला पॉमफ्रेट को काटता है। ‘चैंलेज दो’ वो कहती और उन शामों को जब वो शराब पीकर बातें करती और लड़खड़ाती उसके बालो की काली जड़े उसकी आँखों के असली रंग की तरह बीस वॉट के बल्ब की रोशनी में किसी बेईमान की तरह अपना असली रंग दिखाती जब उसकी पोल खोल रही होतीं, तो उसकी आँखों में एक उम्मीद रौशन होती।
लीला मुसीबत को बुलाती क्योंकि वो तो मुफ्त थी।
‘‘चैंलेज’’ मेरी ब्रेजरी के पट्टे को चटकाते हुए।
‘‘चैंलेज’’ अपनी हर वक्त जलती गोल्ड फ्लेक से मेरी उंगलिया जलाने का नाटक करती जब तक की मैं चीख कर न दूँ। ‘‘अरे मैं मान गई लीला, तुम जीती। मैं समझौता नहीं कर रही थी। लीला थी ही जीतने वालों में से ऐसी लड़की जिसे आप चर्चगेट स्टेशन में शुक्रवार की सुबह लॉटरी की टिकट खरीदते वक्त अपने साथ रखना चाहेंगे। वो अपने प्रेमी पुरूषोत्तम शेट्टी से जीत गयी थी। वो तीखे नैन-नक्श, छोटी टांगों और दो बच्चों वाला शादी-शुदा आदमी उसका ‘पति’ था। वो किसी भी मापदंड से, डॉन्स बार के मापदंड से भी वो उसका सीक्रेट था। लेकिन फिर भी जो लीला को उससे मिलता था उसकी कीमत, उसे पाने के लिए जो उसने खोया, उससे कहीं ज़्यादा थी, लीला ने ये ज़ोर देकर कहा मानो एक बच्चा अपनी माँ को ज़ोर देकर कह रहा हो कि वो बारिश में खेल सकता है बिना सर्दी पकड़े।
वो अपनी माँ अप्सरा से जीत गई हालांकि उसके तरीके ठीक नहीं थे। ‘अप्सरा’ यानी द्विव्य सुंदरी, लेकिन लीला की अप्सरा का वज़न अस्सी किलो से ऊपर था और उसका चेहरा तरकारी काटने वाले पटरे की तरह। उसके पीले दांत मुँह से इतने बाहर थे मानो वो किसी और के हों।
जब वो बोलती थी, बेटी ने अपनी माँ के बारे में बताते हुए कहा, तो ऐसा लगता था कि किसी ने कैसेट रिकार्डर पर फास्ट फारवर्ड का बटन दबा दिया हो। जब वो कमरे में घुसती तो ऐसा लगता मानो अंधेरा हो गया हो।
‘तुम कितनी मोटी हो,’ लीला चीख कर कहती बिना इस बात की परवाह करे की उसका ये मज़ाक, अगर वो मज़ाक है तो मजे़दार था कि नहीं और न ही कि उसकी माँ को अच्छा लगा की नहीं। और लीला अपने बाप मनोहर से भी जीत गई।
लेकिन ये उसके काफी बाद की बात है जब से उसके बाप ने उसे उसके स्कूल के बाहर पुलिस को किराये पर देना शुरू किया था। जब पुलिस वालों ने उसके कौमर्य को उससे छीना उसे कोंसते हुए क्योंकि उसने अपनी सलवार के नाड़े में ऐसी गांठ लगा रखी थी मानो वो सर्दियों के लिए बचाकर रखी आटे की बोरी हो। तो उस वक्त उसे सिर्फ थाने के अहाते में लगे पीपल के पेड़ की पत्तियाँ ही दिखायी दीं थी। उसे ऐसा लगा था मानो वो आपस में जुड़ कर बाते बना रही है और उसकी शर्मिंदगी को लेकर हैरान हो रहीं थी।
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